आनुवंशिकी
जीव- विज्ञान की एक शाखा / From Wikipedia, the free encyclopedia
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता (हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है। आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रेगर जॉन मेंडेल की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ डी एन ए की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए जिम्मेवार होते हैं। इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पैटर्न) का अध्ययन करना है अर्थात् संतति अपने जनकों से किस प्रकार मिलती जुलती अथवा भिन्न होती है।
समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं। आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता हैः
- प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं। जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
- दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते या पा सकते । Jason Kala Chad man Baap per pad Jana aur anuwanshik Lakshan प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं। ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों। इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
जीवों का परिवर्धन तथा उनके परिवेश (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है। प्राणियों के परिवेश अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ (सब्स्टैंस), बल (फोर्स) तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।
वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक् अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है, जिसके अन्तर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
जोहानसेन ने सन् १९११ (1911) में जीवों के बाह्य लक्षणों (फ़ेनोटाइप) तथा पित्रागत लक्षणों (जीनोटाइप) में भेद स्थापित किया। जीवों के बाह्म लक्षण उनके परिवर्धन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं, जैसे जीवों की भ्रूणावस्था, शैशव, यौवन तथा वृद्धावस्था में पर्याप्त शारीरिक विभेद दृष्टिगोचर होता है। इसके विपरीत उनके पित्रागत लक्षण या विशेषताएँ स्थिर तथा अपरिवर्तनशील होती हैं। किसी भी जीव के पित्रागत लक्षण और परिवेश की अंतक्रियाओं के फलस्वरूप उसकी वृद्धि और परिवर्धन होता है। अतः पित्रागत लक्षण जीवों के 'प्रतिक्रया के मानदंड' (नार्म ऑव रिऐक्शन) अर्थात् परिवेश के प्रति उनकी प्रतिक्रिया (रेस्पांस) के ढंग का निधार्रण करते हैं। इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं से जीवों के बाह्य लक्षण (फ़ेनोटाइप) का निर्माण होता है।
आनुवंशिक तत्त्व का कृषि विज्ञान में फसलों के आकार, उत्पादन, रोगरोधन तथा पालतू पशुओं आदि के नस्ल सुधार आदि में उपयोग किया जाता है। आनुवंशिक तत्वों की सहायता से उद्विकास (इवाल्यूशन), भ्रौणिकी (एँब्रायोलाजी) तथा अन्य संबद्ध विज्ञानों के अध्ययन में सुविधा होती हैं। पित्रागत लक्षणों तथा रोगों संबंधी अनेक भ्रमों का इस विज्ञान ने निराकरण किया है। जुड़वाँ संतानों की उत्पत्त्िा और सुसंततिशास्त्र (यूजेनिक्स) की अनेक समस्याओं पर इस विज्ञान ने प्रकाश डाला है। इसी प्रकार जनसंख्या-आनुवंशिक-तत्व (पापुलेशन जेनेटिक्स) की अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियों से मानव समाज लाभान्वित हुआ है।
टी.एच. मार्गन (1886-1945) तथा उनके सहयोगियों ने यह दर्शाया कि कतिपय जीन, जिनका वंशानुक्रम (इन्हेरिटेंस) विनिमय (क्रासिंगओवर) प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ, अणुवीक्षण यंत्रों द्वारा ही दृष्ट कतिपय गुणसूत्रों (क्रोमोसोम) में उपस्थित रहते हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बतलाया कि गुणसूत्रों के भीतर ये जीन एक निर्धारित अनुक्रम में व्यवस्थित रहते हैं जिसके कारण इनका आनुवंशिकीय चित्र (जेनेटिक मैप) बनाना संभव होता है। इन लोगों ने कदली मक्खी, ड्रोसोफिला, के जीन के अनेक चित्र बनाए। प्रोफेसर मुलर का इस दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयोगों द्वारा नए नए वैज्ञानिक अनुसंधानों का मार्गदर्शन किया। कृत्रिम उत्परिवर्तनों (आर्टिफ़िशियल या इंडयूस्ड म्यूटेशन) की अनेक विधियों द्वारा पालतू पशुओं तथा कृषि की नस्लों में अद्भुत सुधार कार्य किए गए। यह सब आनुवंशिकी की ही देन है जो मानवकल्याण के लिए परम हितकारी सिद्ध हुई हैं।
अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य का आनुवंशिक अध्ययन सरल कार्य नहीं है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि मनुष्य की संतान के जन्म में लगभग १० मास लग जाते हैं और इसे पूर्ण वयस्क होने में कम से कम २० वर्ष लगते हैं। अतः एक दो पीढ़ी के ही अध्ययन के लिए २०,२२ वर्षो का समय लगने के कारण मनुष्य का आनुवंशिक अध्ययन जटिल है। इसके साथ ही मनुष्य को एक बार में साधारणतया एक ही बच्चा उत्पन्न होता है, इससे भी अध्ययन में कठिनाई होती है। इन कठिनाइयों के बावजूद मनुष्य के शरीर की बाहरी रचना, रोगों, उनके लक्षणों एवं कारणों आदि का अध्ययन सरल होता है। मनुष्यों की जीवरासायनिक आनुवंशिकी (बायोकेमिकल जेनेटिक्स) का प्रथम अध्ययन लंदन के चिकित्सक आर्चिबाल्ड गैरोड (१८५७-१९३६) ने किया था किंतु सन् १९४० के पूर्व इस विषय पर विस्तृत अध्ययन नहीं हुए थे। मनुष्यों में जीन के संबंध में लगभग ६० गुणों (ट्रेट्स) का पता चला है।
जीवविज्ञान में आनुवंशिकी के अध्ययन का वही महत्त्व है जो भौतिक विज्ञान में परमाणवीय सिद्धांतों का है। मनुष्य के आनुवंशिक अध्ययनों के आरंभिक रूपों में बह्वांगुलिता (अतिरिक्त अंगुलियों का होना), हीमोफ़ीलिया, तथा वर्णांधता (कलर-ब्लाइंडनेस) मुख्य विषय थे। उदाहरणार्थ सन् १७५० में बर्लिन में मॉपर्टुइस ने मेंडेल के नियमों के आधार पर बह्वांगुलिता का वर्णन किया था। इसी प्रकार ओटो (१८०३), हे (१८१३) और बुएल्स (१८१५) ने न्यू इंग्लैंड के तीन विभिन्न परिवारों में लिंगसहलग्न हीमोफ़ीलिया रोग़ के आनुवंशिक कारणों पर प्रकाश डाला था। सन् १८७६ में स्विट्.जरलैंड के चिकित्सक, हार्नर ने वर्णांधता का वर्णन किया। सन् १९५८ में जार्ज बीडिल को 'कायकी तथा औषधि' विषयक जैवरासायानिक आनुवंशिकी क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् १९५९ में जिरोम लेजुईन ने मंगोलीय मूढ़ता (मंगोलायड ईडिओसी) का विद्वत्तापूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया। सन् १९५६ में जे.एच.जिओ, अल्बर्ट लीवान, चार्ल्स फोर्ड एवं जान हैमर्टन ने मुनष्य के गुणसूत्रों की संख्या ४६ बतलाई; इसके पूर्व लोगों का मत था कि यह संख्या ४८ होती है।
इतिहास
अपने माता-पिता से विरासत में मिली चीजों का अवलोकन करने का उपयोग प्रागैतिहासिक काल से फसल के पौधों और जानवरों को जीवित प्रजनन के माध्यम से करने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश करने वाले आनुवांशिकी के आधुनिक विज्ञान ने 19 वीं शताब्दी के मध्य में अगस्टिनियन तले ग्रेगर मेंडल के काम के साथ शुरू किया। मेंडल से पहले, इमरे फेस्टेटिक्स, एक हंगेरियन रईस, जो मेंडेल से पहले कोसेजेग में रहता था, वह पहला व्यक्ति था जिसने "आनुवंशिकी" शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपने काम में आनुवांशिक वंशानुक्रम के कई नियमों का वर्णन किया प्रकृति का आनुवंशिक नियम (डाई जीनिटिस गेसटेज डेर नटुर, 1819)। उसका दूसरा नियम वही है जो मेंडल ने प्रकाशित किया था। अपने तीसरे नियम में, उन्होंने उत्परिवर्तन के मूल सिद्धांतों को विकसित किया (उन्हें ह्यूगो वियर्स का अग्रदूत माना जा सकता है)। सम्मिश्रित विरासत से हर विशेषता का औसत निकलता है, जिसे इंजीनियर फ्लेमिंग जेनकिन ने इंगित किया था, चयन के विकास को असंभव बना देता है। विरासत के अन्य सिद्धांतों ने मेंडल के काम से पहले। 19 वीं शताब्दी के दौरान एक लोकप्रिय सिद्धांत, और चार्ल्स डार्विन के 1859 ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़ द्वारा निहित, विरासत में मिलावट थी: यह विचार कि व्यक्ति अपने माता-पिता से लक्षणों का एक सहज मिश्रण प्राप्त करते हैं। मेंडल के काम ने ऐसे उदाहरण प्रदान किए जहां संकरण के बाद लक्षण निश्चित रूप से मिश्रित नहीं थे, यह दर्शाता है कि लक्षण एक निरंतर मिश्रण के बजाय विभिन्न जीनों के संयोजन द्वारा निर्मित होते हैं। पूर्वजों में लक्षणों के सम्मिश्रण को अब कई जीनों की क्रिया द्वारा मात्रात्मक प्रभावों के साथ समझाया गया है। एक अन्य सिद्धांत जिसका उस समय कुछ समर्थन था, अधिग्रहित विशेषताओं का उत्तराधिकार था: यह विश्वास कि व्यक्तियों को विरासत में अपने माता-पिता द्वारा मजबूत किया गया था। यह सिद्धांत (आमतौर पर जीन-बैप्टिस्ट लैमार्क के साथ जुड़ा हुआ है) को अब गलत माना जाता है - व्यक्तियों के अनुभव उनके बच्चों के पास जाने वाले जीन को प्रभावित नहीं करते हैं, हालांकि एपिगेनेटिक्स के क्षेत्र में सबूत ने लैमार्क के सिद्धांत के कुछ पहलुओं को पुनर्जीवित किया है । अन्य सिद्धांतों में चार्ल्स डार्विन (जो अधिग्रहित और विरासत में प्राप्त दोनों पहलू थे) के पैंगनेस शामिल थे और फ्रांसिस गेल्टन ने पैंग्नेस के सुधार को कण और विरासत दोनों के रूप में सुधार दिया।